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बॉलीवुड फिल्म के बॉ कॉट हैशटैग्स को लेकर मनोज मुंतशिर बोले – हमारा लक्ष्य “सुधार” हो “सर्वनाश” नहीं।

जाने माने लेखक और गीतकार मनोज मुंतशिर ने बॉलीवुड फिल्मो के  लगातार बॉ कॉट को लेकर  दुख प्रकट किये  है। ये हैशटैग्स उन्हें तकलीफ देते हैं, उन्होंने कहा की गेहूं के साथ घुन भी पिसता जा रहा है। इस मसले पर मनोज मुंतशिर ने एक लंबा लेख लिखा है। इस लेख के जरिए उन्होंने कहा है हमारा लक्ष्य सुधार का होना चाहिए ” सर्वनाश” का नहीं। आइए जानते हैं विस्तार से उनके शब्दों में, उनके शब्द किन-किन बिंदुओं पर ध्यान आकर्षित कर रहे हैं:-

हिन्दी फ़िल्म उद्योग कहना सही है।

बॉ कॉट बॉलीवुड ये हैशटैग पिछले कुछ दिनों से बार-बार टैंड करता आया है। बॉलीवुड अपने आप में कोई सम्मानसूचक शब्द नहीं है। यह हॉलीवुड की एक सस्ती नकल जैसा सुनाई देता है। मैं हिन्दी फ़िल्म उद्योग कहना ज्यादा पसंद करूंगा। इस इंडस्ट्री के साथ मेरा संबंध वही है जो एक मजदूर का मिल से एक किसान का खेत से और एक खिलाड़ी का मैदान से होता है। जाहिर सी बात है, ये हैशटैग्स मुझे तकलीफ देते हैं, लेकिन मैं यह भी जानता हूं कि आपकी नाराजगी बेवजह नहीं है। हमसे गलतियां हुई हैं, हमने कई बार लिवरल थिकिंग के नाम पर इस देश की संस्कृति को ठेस पहुंचाई है, कहानियां सुनाने में पक्षपात किया है और कई बार हम अपने दर्शकों के लिए संवेदना शून्य भी हुए हैं।

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हमारा लक्ष्य ‘सुधार’ है, ‘सर्वनाश’ नहीं

एक युग था, जब देवी-देवताओं का मजाक उड़ाना, सनातन संस्कृति को बदनाम करना बॉलीवुड की आदत और पहचान बन गई थी। लेकिन पिछले कुछ सालों में एक जनजागरण हुआ आपने ऐसी फ़िल्मों को अस्वीकार कर दिया जो हमारे समाज की पक्षपात की दृष्टि से देखती थी लेकिन इसके साथ हो एक दुर्घटना भी हो गई। गेहूं के साथ धुन भी पिसने लगा। हम अचानक पूरे हिन्दी फिल्म उद्योग के विरोधी बन गए। हम ये भूल गए कि हमारा लक्ष्य ‘सुधार’ है, ‘सर्वनाश’ नहीं

ये कोई छुपी हुई बात नहीं है कि हिन्दी भाषी क्षेत्रों में सिनेमा बॉयकॉट से बहुत पहले भी बड़ी चुनौतियों से जूझता रहा है, जिनमें सबसे प्रमुख है, थिएटर्स का न होना बड़ी से बड़ी फ़िल्म भी 3200 से 3500 स्क्रीन्स तक सिमटकर रह जाती है और छोटी फिल्में चाहे वो कितनी भी अर्थपूर्ण क्यों न हों, अपने लिए थिएटर्स हो नहीं ढूंढ पाती। कश्मीर फाइल्स के साथ भी शुरू-शुरू में यही हुआ बड़ी मुश्किल से फिल्म अपने लिए 630 स्क्रीन जुटा पाई।

झटके ठीक करने के लिए जान से मारने के लिए नहीं

कोविड के बाद सिनेमाघरों के मालिक आर्थिक तंगी से इस कदर टूट गए कि सैकड़ों सिनेमा घर हमेशा के लिए बंद हो गए। जो सिनेमाघर आने वाले अच्छे दिनों की आशा में कोविड की मार सह गए, उन पर बॉयकॉट ट्रेंड श्राप की तरह मंडराने लगा। मैं इस ट्रेंड को अनावश्यक नहीं मानता शायद हमारी पगलाई हुई इंडस्ट्री को बिजली के कुछ झटकों की जरूरत थी, लेकिन झटके दिमाग़ ठीक करने के लिए दिए जाते हैं, मरीज को जान से मारने के लिए नहीं।

अब नौबत ये आ गई है कि हमने करंट ऑन करके छोड़ दिया है। कोई भी फ़िल्म आए, हम बहिष्कार के लिए तैयार बैठे हैं, क्योंकि फिल्म के निर्देशक या किसी अभिनेता या लेखक ने कभी कोई ऐसा बयान दिया होगा, जिससे जन-भावना को ठेस पहुंची, तो दंड देने का यही समय है कि उसको फिल्म को दर्शकों के लिए तरसा दिया जाए।

मेरी चिंता यह है कि ये दंड हम उन तमाम फिल्म स्टास को नहीं दे रहे, जो करोड़ों की कमाई बैंक में जमा करके चैन से बैठे हुए हैं। लेकिन हम उस रामकुमार को दे रहे हैं जो थिएटर में मूंगफलियां बेचकर अपने बच्चों को स्कूल भेजता है, सजा हम उस बब्बू को दे रहे हैं, जिसके समोसे हर शुक्रवार को उसके छोटे-छोटे सपनों के साथ कचरे के डब्बे में चले जाते हैं। वो रिक्शा वाले जो लोगों को सिनेमाघर पहुंचाते हैं। वो रेहड़ी वाले जो थियेटर के आगे स्टाल लगाते हैं, उन्हें सजा दे रहे हैं।

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बहिष्कार की आंधी ने कितने हाथों से निवाले छीने

बहिष्कार की आंधी में कितने हाथों से निवाले उड़ गए, अंदाजा लगाना कठिन है। एक तर्क यह है कि किसी भी बड़ी मुहिम के साथ छोटे-मोटे नुकसान तो होते ही हैं, हमें रामकुमार और बब्बू से सहानुभूति है, लेकिन राष्ट्र पहले मैं भी मानता हूँ कि राष्ट्र सर्वप्रथम है, लेकिन जिस सिनेमा ने ‘दूर हटो ए दुनिया वालों हिंदुस्तान हमारा है जैसे गीत देकर अंग्रेजों का सिहासन हिला दिया।

जिस सिनेमा ने इमरजेंसी के काले दौर को बेखौफ होकर पर्दे पर उतारा, जो सिनेमा वीर भगत सिंह और रानी लक्ष्मीबाई को बच्चे-बच्चे तक ले गया, जिस सिनेमा ने मंगल पांडे से लेकर मिशन मंगल तक हमारी शौर्य गाथाएं जन-जन तक पहुंचाई, जो सिनेमा ‘तेरी मिट्टी बनकर हमारे फीजियों के होंठों पर जिंदा है, उसे बेमीत मारने से पहले हमें वह जरूर सोचना होगा कि कहीं ऐसा तो नहीं कि हम वो ज्वाला बुझा रहे है, जिसके प्रकाश में आने वाली पीढ़ियां अपने नायकों को देखत उन पर गर्व करती, उनसे सीखती।

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